बहुत हिम्मत का काम है अपनी " अक्षमता" स्वीकार करना।
अभी हाल ही में एक सच्ची कहानी का सामना, मेरे द्वारा अखबार के माध्यम से हुआ,एवं इस कहानी से काफी प्रेरणा मिली तो सोचा इसको आप सभी के समक्ष रखा जाए।
कुछ सालों पहले शालू के माता पिता इसे, मंदबुद्धि होने के कारण सड़क किनारे लावारिस छोड़ गए , अब कर रही है आबू धाबी में देश का प्रतिनिधित्व,,,,,,
बेटी होना कुछ लोगों को अच्छा नहीं लगता। यदि
बेटी में कोई कमी है या वह किसी तरह की
विकलांगता से पीड़ित है तो कुछ माता-पिता उसे अपने से
दूर कर देते हैं। मेरी कहानी भी ऐसी ही है। मेरे माता-पिता
को शायद मैं पसंद नहीं थी। ईश्वर ने उन्हें सदबुद्धि दी थी,
इसलिए उन्होंने मेरे जीवन को हानि पहुंचाए बिना मुझे खुद
से दूर कर दिया। किस्मत मुझे अनाथ आश्रम ले आई। वहां
मुझे सही ट्रेनिंग मिली तो मेरे जैसी मंदबुद्धि लड़की ने खेल
में लगातार गोल्ड मेडल जीते। बौद्धिक विकलांग एथलीटों
के लिए हर दो साल में ‘विशेष ओलिंपिक विश्व खेल’
आयोजित किए जाते हैं। इसी कड़ी में आबूधाबी में 8 से 21
मार्च तक होने वाले पॉवर लिफ्टिंग मुकाबले में मैं देश का
प्रतिनिधित्व कर रही है"
मेरा जन्म कहां हुआ, माता-पिता कौन हैं, यह तो मुझे पता
नहीं। जब समझने लगी तब लोगों से पता चला कि 19 फरवरी
1997 को अमृतसर बस स्टैंड की सड़क किनारे कोई मुझे
लावारिस छोड़ गया था। वो बेहद सर्द सुबह थी। मैं रोए जा
रही थी, तभी पुलिस आई और मुझे उठाकर ले गई। फिर मुझे
पिंगलवाड़ा (भगत पूरनसिंह चैरिटेबल ट्रस्ट) नामक अनाथ
आश्रम के हवाले कर दिया गया। चूंकि मेरे बारे में किसी
को कुछ पता नहीं था, इसलिए अंदाज से मुझे 4-5 वर्ष की
मानकर 19 फरवरी को ही मेरा जन्मदिन दर्ज कर लिया गया।
मैं पंजाबी मिक्स हिंदी भाषा समझ नहीं पाती थी, इसलिए मान
लिया गया कि शायद मैं यूपी से रही होऊंगी। आश्रम में आने से
पहले का मुझे कुछ याद नहीं। पिंगलवाड़ा प्रबंधन की पद््मिनी
श्रीवास्तव ने मुझे संभाला और गोद लेकर अपनी खास बेटी
की तरह मेरी परवरिश शुरू की। उन्होंने मुझे नाम दिया शालू..।
आश्रम में ढेर सारे बच्चों के साथ मेरी जीवन यात्रा शुरू
हुई। मैं मंदबुद्धि की श्रेणी में दर्ज की गई थी, अंगूठा चूसती
रहती थी, कुछ बोल नहीं पाती थी। इसलिए मेरे जैसे अन्य
बच्चों का यहां विशेष ध्यान रखा जाता है। जैसे-जैसे समय
बीतता गया मैं कुछ-कुछ बोलना सीख गई। हमें विशेष तरह
पढ़ाई कराई जाने लगी, वैसी नहीं जैसी स्कूलों में सामान्य
बच्चे बढ़ते हैं। पिंगलवाड़ा में एक स्कूल ऐसा भी खुला जिसमें
मेरे जैसे बच्चों को खुद की देख-रेख करने के बारे में भी
सिखाया जाता था। इस कारण दो साल बाद मैं आत्मनिर्भर हो
गई। आश्रम में मम्मियां (पद््मिनी, सिमरनजीत और अनिता
बतरा) मेरा दूसरे बच्चों से ज्यादा ध्यान रखती थीं। कब क्या
खाना है, क्या पीना है, क्या पहनना है। प्रैक्टिस के दौरान जब
मैं गिर जाती थी और रोने लगती थी तो तुरंत सीने से लगा
लेती थीं। बच्चों के साथ खेलते हुए मेरी मां को पता चला कि
मैं फुटबॉल और एथलेटिक्स में रुचि ले रही हूं। इनमें भी मैं
पॉवर लिफ्टिंग को ज्यादा तवज्जो दे रही हूं तो मुझे एथलेटिक
का प्रशिक्षण दिया जाने लगा, लेकिन कुछ महीनों बाद मेरा
लगाव फुटबॉल से हो गया। एक बार फुटबॉल मैच खेलते
समय मुझसे कोई गलती हो गई और मेरा गोल भी चूक गया।
इस कारण मुझे खेल से बाहर कर दिया गया। उस समय मुझे
बहुत गुस्सा आया। मैंने किसी से बात नहीं की। कुछ समय
बाद अपना गुस्सा उतारने के लिए मैं सीधे जिम पहुंची और
वजन उठाना शुरू कर दिया। इसके बाद कई कोच मुझे वेट
लिफ्टिंग की ट्रेनिंग देने लगे। मैंने भी प्रैक्टिस में खुद को पूरी
तरह झोंक दिया, जिसके नतीजे आश्चर्यजनक निकले।
मुझे पहली बार वर्ष 2000 में होशियारपुर में होने वाले
एथलेटिक्स में शामिल होने का मौका मिला। मैं छोटी थी और
मुकाबला कठिन था, लेकिन मैंने बाजी भी मारी तो गोल्ड
मेडल जीतकर। इससे मेरा हौसला और बढ़ा, मैं जिम में खूब
पसीना बहाने लगी। इसके बाद 2011 में चेन्नई और भोपाल
में हुए नेशनल गेम्स में भी मैंने गोल्ड मेडल जीता। आश्रम
वाले मेरी प्रतिभा को देखकर मुझे पॉवर लिफ्टिंग की ओर
प्रेित करने लगे। 2011 में ही पटियाला में पहली बार मैंने
अंतरराष्ट्रीय मुकाबले में गोल्ड जीता। इसके बाद 2014 में
फिर भोपाल में गोल्ड मेरे हिस्से में आया। 2015 में लॉस
एंजेलिस में पॉवर लिफ्टिंग के लिए मेरा चयन हुआ, लेकिन
वहां मुझे खेलने का मौका नहीं दिया गया। इसके विपरीत मुझे
यूनिफाइड (छह खिलाड़ियों के बीच होने वाला मुकाबला,
जिसमें एक साधारण खिलाड़ी, दो बहरे तथा तीन मंदबुद्धि
वाले होते हैं) में उतार दिया गया। मुझे कुछ पता नहीं था कि
क्या करना है। मैंने एक घंटे पॉवर लिफ्टिंग की खूब प्रैक्टिस
की और अंतरराष्ट्रीय मुकाबले में यहां भी गोल्ड जीत लिया।
2016 में झारखंड में भी मैंने मुकाबला जीता। मेरा वजन 60
किलो है और मैं 100 किलो वजन उठा लेती हूं।
समाज मेरे जैसे बच्चों को नकारे नहीं, बल्कि हमारे अंदर
की प्रतिभा को पहचाने। फिर देखें हम क्या नहीं कर सकते।
यह आश्रम मेरे लिए मंदिर से कम नहीं है। यहां आकर नया
जीवन मिला, पद््मिनी जैसी मां मिली। एक एथलीट, पॉवर
लिफ्टर के रूप में मेरी पहचान बनी। चाहे मैं दिव्यांग हूं,
लेकिन बहुत अच्छा खाना बना लेती हूं। सिलाई-कढ़ाई तथा
डांस में भी परफेक्ट हो गई हूं। दिव्यांग होना अभिशाप नहीं
है। अपनी अक्षमता स्वीकार करना बहुत हिम्मत का काम
है। उससे भी बड़ा काम है बाहरी दुनिया में एक उदाहरण
स्थापित करना। आबूधाबी में हो रहे टूर्नामेंट के लिए मैं बहुत
उत्साहित हूं। छह महीने से कड़ी मेहनत कर रही हूं। मैं हवाई
जहाज की सवारी कर आबूधाबी जाने के लिए बेचैन हूं। मुझे
पूरी उम्मीद है कि मैं वहां से भी गोल्ड मेडल जीतकर लाऊंगी।
(जैसा उन्होंने अमृतसर के शिवराज द्रुपद को बताया)
शालू
गोल्ड जीतने वाली दिव्यांग
पॉवर लिफ्टर
लक्ष्य को,,,,
यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, तो आप इस कहानी को अधिक से अधिक शेयर कर सकते है, एवं कमेंट बॉक्स में आप इसके बारे में प्रतिक्रिया भी दे सकते है।
धन्यवाद,
गोविन्द नागर धाकड़
अभी हाल ही में एक सच्ची कहानी का सामना, मेरे द्वारा अखबार के माध्यम से हुआ,एवं इस कहानी से काफी प्रेरणा मिली तो सोचा इसको आप सभी के समक्ष रखा जाए।
कुछ सालों पहले शालू के माता पिता इसे, मंदबुद्धि होने के कारण सड़क किनारे लावारिस छोड़ गए , अब कर रही है आबू धाबी में देश का प्रतिनिधित्व,,,,,,
बेटी होना कुछ लोगों को अच्छा नहीं लगता। यदि
बेटी में कोई कमी है या वह किसी तरह की
विकलांगता से पीड़ित है तो कुछ माता-पिता उसे अपने से
दूर कर देते हैं। मेरी कहानी भी ऐसी ही है। मेरे माता-पिता
को शायद मैं पसंद नहीं थी। ईश्वर ने उन्हें सदबुद्धि दी थी,
इसलिए उन्होंने मेरे जीवन को हानि पहुंचाए बिना मुझे खुद
से दूर कर दिया। किस्मत मुझे अनाथ आश्रम ले आई। वहां
मुझे सही ट्रेनिंग मिली तो मेरे जैसी मंदबुद्धि लड़की ने खेल
में लगातार गोल्ड मेडल जीते। बौद्धिक विकलांग एथलीटों
के लिए हर दो साल में ‘विशेष ओलिंपिक विश्व खेल’
आयोजित किए जाते हैं। इसी कड़ी में आबूधाबी में 8 से 21
मार्च तक होने वाले पॉवर लिफ्टिंग मुकाबले में मैं देश का
प्रतिनिधित्व कर रही है"
मेरा जन्म कहां हुआ, माता-पिता कौन हैं, यह तो मुझे पता
नहीं। जब समझने लगी तब लोगों से पता चला कि 19 फरवरी
1997 को अमृतसर बस स्टैंड की सड़क किनारे कोई मुझे
लावारिस छोड़ गया था। वो बेहद सर्द सुबह थी। मैं रोए जा
रही थी, तभी पुलिस आई और मुझे उठाकर ले गई। फिर मुझे
पिंगलवाड़ा (भगत पूरनसिंह चैरिटेबल ट्रस्ट) नामक अनाथ
आश्रम के हवाले कर दिया गया। चूंकि मेरे बारे में किसी
को कुछ पता नहीं था, इसलिए अंदाज से मुझे 4-5 वर्ष की
मानकर 19 फरवरी को ही मेरा जन्मदिन दर्ज कर लिया गया।
मैं पंजाबी मिक्स हिंदी भाषा समझ नहीं पाती थी, इसलिए मान
लिया गया कि शायद मैं यूपी से रही होऊंगी। आश्रम में आने से
पहले का मुझे कुछ याद नहीं। पिंगलवाड़ा प्रबंधन की पद््मिनी
श्रीवास्तव ने मुझे संभाला और गोद लेकर अपनी खास बेटी
की तरह मेरी परवरिश शुरू की। उन्होंने मुझे नाम दिया शालू..।
आश्रम में ढेर सारे बच्चों के साथ मेरी जीवन यात्रा शुरू
हुई। मैं मंदबुद्धि की श्रेणी में दर्ज की गई थी, अंगूठा चूसती
रहती थी, कुछ बोल नहीं पाती थी। इसलिए मेरे जैसे अन्य
बच्चों का यहां विशेष ध्यान रखा जाता है। जैसे-जैसे समय
बीतता गया मैं कुछ-कुछ बोलना सीख गई। हमें विशेष तरह
पढ़ाई कराई जाने लगी, वैसी नहीं जैसी स्कूलों में सामान्य
बच्चे बढ़ते हैं। पिंगलवाड़ा में एक स्कूल ऐसा भी खुला जिसमें
मेरे जैसे बच्चों को खुद की देख-रेख करने के बारे में भी
सिखाया जाता था। इस कारण दो साल बाद मैं आत्मनिर्भर हो
गई। आश्रम में मम्मियां (पद््मिनी, सिमरनजीत और अनिता
बतरा) मेरा दूसरे बच्चों से ज्यादा ध्यान रखती थीं। कब क्या
खाना है, क्या पीना है, क्या पहनना है। प्रैक्टिस के दौरान जब
मैं गिर जाती थी और रोने लगती थी तो तुरंत सीने से लगा
लेती थीं। बच्चों के साथ खेलते हुए मेरी मां को पता चला कि
मैं फुटबॉल और एथलेटिक्स में रुचि ले रही हूं। इनमें भी मैं
पॉवर लिफ्टिंग को ज्यादा तवज्जो दे रही हूं तो मुझे एथलेटिक
का प्रशिक्षण दिया जाने लगा, लेकिन कुछ महीनों बाद मेरा
लगाव फुटबॉल से हो गया। एक बार फुटबॉल मैच खेलते
समय मुझसे कोई गलती हो गई और मेरा गोल भी चूक गया।
इस कारण मुझे खेल से बाहर कर दिया गया। उस समय मुझे
बहुत गुस्सा आया। मैंने किसी से बात नहीं की। कुछ समय
बाद अपना गुस्सा उतारने के लिए मैं सीधे जिम पहुंची और
वजन उठाना शुरू कर दिया। इसके बाद कई कोच मुझे वेट
लिफ्टिंग की ट्रेनिंग देने लगे। मैंने भी प्रैक्टिस में खुद को पूरी
तरह झोंक दिया, जिसके नतीजे आश्चर्यजनक निकले।
मुझे पहली बार वर्ष 2000 में होशियारपुर में होने वाले
एथलेटिक्स में शामिल होने का मौका मिला। मैं छोटी थी और
मुकाबला कठिन था, लेकिन मैंने बाजी भी मारी तो गोल्ड
मेडल जीतकर। इससे मेरा हौसला और बढ़ा, मैं जिम में खूब
पसीना बहाने लगी। इसके बाद 2011 में चेन्नई और भोपाल
में हुए नेशनल गेम्स में भी मैंने गोल्ड मेडल जीता। आश्रम
वाले मेरी प्रतिभा को देखकर मुझे पॉवर लिफ्टिंग की ओर
प्रेित करने लगे। 2011 में ही पटियाला में पहली बार मैंने
अंतरराष्ट्रीय मुकाबले में गोल्ड जीता। इसके बाद 2014 में
फिर भोपाल में गोल्ड मेरे हिस्से में आया। 2015 में लॉस
एंजेलिस में पॉवर लिफ्टिंग के लिए मेरा चयन हुआ, लेकिन
वहां मुझे खेलने का मौका नहीं दिया गया। इसके विपरीत मुझे
यूनिफाइड (छह खिलाड़ियों के बीच होने वाला मुकाबला,
जिसमें एक साधारण खिलाड़ी, दो बहरे तथा तीन मंदबुद्धि
वाले होते हैं) में उतार दिया गया। मुझे कुछ पता नहीं था कि
क्या करना है। मैंने एक घंटे पॉवर लिफ्टिंग की खूब प्रैक्टिस
की और अंतरराष्ट्रीय मुकाबले में यहां भी गोल्ड जीत लिया।
2016 में झारखंड में भी मैंने मुकाबला जीता। मेरा वजन 60
किलो है और मैं 100 किलो वजन उठा लेती हूं।
समाज मेरे जैसे बच्चों को नकारे नहीं, बल्कि हमारे अंदर
की प्रतिभा को पहचाने। फिर देखें हम क्या नहीं कर सकते।
यह आश्रम मेरे लिए मंदिर से कम नहीं है। यहां आकर नया
जीवन मिला, पद््मिनी जैसी मां मिली। एक एथलीट, पॉवर
लिफ्टर के रूप में मेरी पहचान बनी। चाहे मैं दिव्यांग हूं,
लेकिन बहुत अच्छा खाना बना लेती हूं। सिलाई-कढ़ाई तथा
डांस में भी परफेक्ट हो गई हूं। दिव्यांग होना अभिशाप नहीं
है। अपनी अक्षमता स्वीकार करना बहुत हिम्मत का काम
है। उससे भी बड़ा काम है बाहरी दुनिया में एक उदाहरण
स्थापित करना। आबूधाबी में हो रहे टूर्नामेंट के लिए मैं बहुत
उत्साहित हूं। छह महीने से कड़ी मेहनत कर रही हूं। मैं हवाई
जहाज की सवारी कर आबूधाबी जाने के लिए बेचैन हूं। मुझे
पूरी उम्मीद है कि मैं वहां से भी गोल्ड मेडल जीतकर लाऊंगी।
(जैसा उन्होंने अमृतसर के शिवराज द्रुपद को बताया)
शालू
गोल्ड जीतने वाली दिव्यांग
पॉवर लिफ्टर
लक्ष्य को,,,,
यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, तो आप इस कहानी को अधिक से अधिक शेयर कर सकते है, एवं कमेंट बॉक्स में आप इसके बारे में प्रतिक्रिया भी दे सकते है।
धन्यवाद,
गोविन्द नागर धाकड़
Positive story.."for more josh"
Reviewed by Govind Nagar Dhakad
on
March 11, 2019
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